तिलक लगाने की परंपरा भारतीय संस्कृति में अति प्राचीन है- अर्जुन चांदना

 तिलक लगाने की परंपरा भारतीय संस्कृति में अति प्राचीन है। प्रारंभ से ही माना जाता है कि मस्तस्क पर तिलक लगाने से व्यक्ति का गौरव बढ़ता है। हिंदू संस्कृति में तिलक एक पहचान चिह्न का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं। तिलक लगाने से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है। मन इधर-उधर की फालतू बातों में नहीं भटकता है।   

तिलक आवश्यक है -पूजा और भक्ति का एक प्रमुख अंग तिलक है। भारतीय संस्कृति में पूजा-अर्चना, संस्कार विधि, मंगल कार्य, यात्रा गमन, शुभ कार्यों के प्रारंभ में माथे पर तिलक लगाकर उसे अक्षत से विभूषित किया जाता है।उत्तर भारत में आज भी तिलक-आरती के साथ आदर सत्कार-स्वागत कर तिलक लगाया जाता है।

तिलक मस्तक पर दोनों भौंहों के बीच नासिका के ऊपर प्रारंभिक स्थल पर लगाए जाते हैं जो हमारे चिंतन-मनन का स्थान है- यह चेतन-अवचेतन अवस्था में भी जागृत एवं सक्रिय रहता है, इसे आज्ञा-चक्र भी कहते हैं।इसी चक्र के एक ओर दाईं ओर अजिमा नाड़ी होती है तथा दूसरी ओर वर्णा नाड़ी है।इन दोनों के संगम बिंदु पर स्थित चक्र को निर्मल,विवेकशील, ऊर्जावान, जागृत रखने के साथ ही तनावमुक्त रहने हेतु ही तिलक लगाया जाता है।इस बिंदु पर यदि सौभाग्यसूचक द्रव्य जैसे चंदन,केशर, कुमकुम आदि का तिलक लगाने से सात्विक एवं तेजपूर्ण होकर आत्मविश्वास में अभूतपूर्ण वृद्धि होती है, मन में निर्मलता, शांति एवं संयम में वृद्धि होती है।

तिलक कितने प्रकार के होते।-मृतिका, भस्म, चंदन, रोली, सिंदूर, गोपी आदि। सनातन धर्म में शैव, शाक्त,वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं।


चन्दन के प्रकार-  हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन,गोमती और गोकुल चंदन।

तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। आइए जानते हैं कितने तरह के होते हैं तिलक। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।

शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-लालश्री तिलक-इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है। **विष्णुस्वामी तिलक यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भौंहों के बीच तक आता है।

रामानंद तिलक विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।

श्यामश्री तिलक इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।

अन्य तिलक गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। कई साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।


पूजन में तिलक का महत्व 

पूजन में तिलक लगाना महत्वहपूर्ण एवं लाभकारी है। तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। इनसे मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट के विकार नहीं होते हैं।

मस्तक पर चंदन का तिलक सुगंध के साथ-साथ शीतलता देता है।ईश्वर को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा रूपी सुगंध से भर जाए एवं हम व्यवहार से शीतल रहें अर्थात् ठंडे दिमाग से कार्य करें। अधिकतर उत्तेजना में कार्य बिगड़ता है और चंदन लगाने से उत्तेजना नियंत्रित होती है। चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है।

स्त्रियों को माथे पर कस्तूरी की बिंदी लगानी चाहिए। गणेश जी, हनुमान जी, दुर्गा माता जी या अन्य मूर्तियों से सिंदूर लेकर ललाट पर नहीं लगाना चाहिए, कारण है कि सिंदूर उष्ण होता है।

वस्त्र धारण करने के उपरान्तल उत्तर की ओर मुंह करके ललाट पर तिलक लगाना चाहिए। श्वेत चन्दन, रक्त चंदन, कुंकुम, मृत्रिका विल्वपत्र भस्म आदि कई पदार्थों से साधक तिलक लगाते हैं। विप्र यदि बिना तिलक के संध्या तर्पण करता है तो वह सर्वथा निष्फल जाता है।

एक ही साधक को उर्ध्व् पुण्डर तथा भस्म से त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। चन्दन से दोनों प्रकार के तिलक किए जा सकते हैं।

ललाट के मध्यभाग में दोनों भौहों से कुछ ऊपर ललाट बिंदु कहलाता है। सदैव इसी स्थान पर तिलक लगाना चाहिए।

अनामिका उंगली से तिलक करने से शान्ति मिलाती है, मध्यमा से आयु बढ़ाती है,।


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