जाने कौन है बस्तर के ताऊजी जिन्होंने कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह सीआरपीएफ जवान को, नक्सलियों से मध्यस्थता कर रिहा करवाया।
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छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के 87 वर्षीय धर्मपाल सैनी को ताऊजी के नाम से जाना जाता है। और बताया जा रहा कि नक्सलियों के कब्जे से कोबरा कमांडो राजेश्वर सिंह को छुड़ाने में उन्होंने मध्यस्थता की है। आखिरकार आज छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह (Rakeshwar Singh) को लगभग 100 घंटे बाद तक रिहा किया। राजेश्वर सिंह को रिहा कराने के लिए केन्द्र सरकार ने एक टीम बनाई थी।जिसमें पद्मश्री धर्मपाल सैनी उर्फ ताऊजी, गोंडवाना समाज के अध्यक्ष तेलम बोरैया, पत्रकार गणेश मिश्रा और मुकेश चंद्राकर, राजा राठौर, शंकर भी शामिल थे। ताऊजी के नाम से जाना जाता है। उन्हें भारत सरकार उनके कार्यों के लिए पदमश्री भी दे चुकी है। वहीं वह पिछले चार दशकों से राज्य में शिक्षा के स्तर को सुधारने के कार्य कर रहे हैं और उन्होंने राज्य की आदिवासी लड़कियों के लिए माता रुक्मणी देवी आश्रम के तहत 37 आदिवासी स्कूल खोले गए हैं। क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में स्कूल की बड़ी समस्या है। धर्मपाल को उनके काम के लिए 1992 में पद्मश्री भी मिल चुका है।
#सरकार ने बनाई थी #मध्यस्थता टीम बनाई थी
असल में कोबरा जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को मुक्त करने के लिए एक मध्यस्था टीम का गठन किया गया था। जिसमें नक्सलियों के साथ बातचीत की और सकुशल सैकड़ों ग्रामीणों की उपस्थिति में राकेश्वर सिंह मन्हास को रिहा किया गया।ताऊजी 1976 में पहुंचे थे बस्तर
असल में धर्मपाल सैनी 1976 में जब बस्तर आए थे, तब यहां की साक्षरता दर लगभग 1 प्रतिशत थी। लेकिन इसके बाद उन्होंने पूरे इलाके में साक्षरता के लिए अभियान चलाया और उसके बाद ये दर बढ़ाकर 65 प्रतिशत तक पहुंच गई। ताऊजी (Dharampal Saini alias Tauji) द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों में पढ़ने वाली आदिवासी लड़कियां एथलीटों, डॉक्टरों और प्रशासनिक सेवाओं में गई हैं। जब इस इलाके की रहने वाली लड़कियों ने ये सब देखा तो वह भी इन आवासीय विद्यालयों में जाने लगीं।
ताऊ जी (Dharampal Saini alias Tauji) ने एक बार एक मीडिया संस्थान को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि आदिवासी क्षेत्रों में आश्रमों का निर्माण करना और उन्हें साक्षर बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। क्योंकि आदिवासी लोगों को अपने रिवाजों को बदलने की दिक्कत थी। हालांकि, जिला प्रशासन ने आश्रम के लिए जगह दी। लेकिन अधिकारियों ने मुझे बताया कि आदिवासी लोग इतनी जल्दी किसी पर भरोसा नहीं करते हैं और वे लड़कियों को स्कूल नहीं भेजेंगे। उन्होंने बताया कि शुरुआती छह महीनों में केवल पांच आदिवासी लड़कियां ही आश्रम में आई थीं।
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