आज की युवा पीढ़ी की दिशा....✍️अर्जुन सिंह


#आज_की_युवा_पीढ़ी किस #दिशा में जा रही है। ये सोचने वाली बात है।....हम जिस मार्ग से गुजर रहे हे या चल  रहे हे।...क्या यह भविष्य में सही कदम होगा। जरा सोचिए??
और #युवाओं_को_भी_लगता है कि लोग इन्हें देश, समाज से कटा हुआ ही समझते हैं ।...लोगों को लगता है कि युवाओं के सामने कोई लक्ष्य नहीं है...उसे सिर्फ अपने सुख-सुविधा का ही ध्यान है। या फिर क्षणिक आवेश में आ कर वह बहुत कुछ कर बैठते हैं । युवा समाज के प्रति कोई खास प्रतिबद्धता नहीं रखता या समय के साथ उसकी प्रतिबद्धता में जल्द ही बदलाव आ जाता है । वास्तविकता यह है कि यह समय उसके लिए काफी उथल-पुथल भरा होता है । सच्चा युवा कभी बने बनाए मार्ग से चलना ही नहीं चाहता । वह चाहे तब भी उस मार्ग पर नहीं चल सकता उसके भीतर छिपी ऊर्जा उसे वहाँ चलने ही नहीं देगी । चाहे उसे कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े । उसे जो कुछ ज्ञात होता है उसे वह अनुभव द्वारा ही समझना चाहता है । उसे दूसरे के अनुभव पसंद नहीं । आज एक ऐसे ही सच्चे युवा का जन्मदिन है । जिसने अपना मार्ग स्वयं चुना और उस मार्ग पर चलते हुए अपना बलिदान दे दिया । जिसने युवाओं को सर गर्व से उच्चा कर दिया । जिसकी हैट वाली तस्वीर आज भी युवाओं को आकर्षित करती है । जिसने मात्र 23 वर्ष की उम्र में फाँसी पर चढ़ इतिहास रच दिया । अपनी फाँसी के बीस दिन पहले अपने 12 वर्षीय भाई कुलतार को लिखे ख़त की उसकी पंक्तियाँ युवाओं के अटूट  विश्वास को ही सामने रखती है –

उसे फ़िक्र है हर दम नया तर्जे जफा क्या है
हमें ये शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
देहर से क्यों खफा रहे चर्ख का क्यों गिला करें
सारा जहाँ अदू सही आओ मुकाबला करें कुछ दम का मेहमां हूँ ए अहले महफ़िल
चिरागे सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली
यह मुश्ते खाक है फानी रहे न रहे   ।

भगत सिंह के साथ सुखदेव और राजगुरु भी फाँसी पर चढ़े थे । युवा शक्ति द्वारा किए गए प्रयासों और उनके पीछे स्थित विचारों को जिस पैमाने पर सामने आना चाहिए था I उस पैमाने पर वह सामने नहीं आ सका । उनके कार्यों को बस उत्तेजना का नाम दे दिया गया । सारा क्रांतिकारी आंदोलन मात्र बम का दर्शन मान लिया गया । लेकिन सही मायनों में उन्हें समझने के लिए उनके विचारों को समझना होगा । पाठ्य पुस्तकों में भी उन्हें सिर्फ क्रांतिकारी और आतंकी के रूप में कुछ पन्नों तक सीमित कर दिया गया है । उनके और उनके विचारों को समझे बिना सिर्फ उनकी मूर्तियों पर माला चढ़ाने से कुछ होने वाला नहीं । हर वर्ष उनकी प्रतिमा पर माला चढ़ाए जाते हैं और बड़ी-बड़ी बातें होती है लेकिन होता कुछ नहीं । मैंने स्वयं नेताओं को शहीदों की मूर्तियों पर माला चढ़ाते हुए देखा है लेकिन ठीक उसके बाहर बीमार पड़े व्यक्ति पर उनकी नजर तक नहीं जाती । जिस गाड़ी से वे आते हैं उसी पर बैठ कर चले जाते हैं । और पार्टी कार्यकर्ता भी बस अपनी तैयारियों में ही लगे होते हैं उन्हें भी बस अपने संगठन का नाम सुर्खियों में रखने भर से मतलब है । वे भी बस नेताओं के भाषणों पर तालियाँ भर पिट  कर रह जाते हैं । इन सब से क्या वास्तविक धरातल पर कुछ भी बदलता है । इसका उत्तर हम सब जानते हैं । ज्यादातर सामाजिक संगठन सामाजिक एकता कायम करने की जगह अपना व्यक्तिगत हित साध रहें हैं । कहीं जाति के नाम पर तो कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं भाषा के नाम पर तो कहीं विचारधारा के नाम पर । दिशाहीन युवा वर्ग अपनी सारी शक्ति , ऊर्जा इन्ही बेकार की चीजों में बर्बाद कर रहा है । 

इससे आगे बढ़ कर देखे तो सिर्फ दूसरों की दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति किसी संगठन या फिर राजनीतिक दल के लिए एक कैडर का कार्य कर सकते हैं पर उसे सही दिशा नहीं दे सकते ।  आज ऐसे लोगो की काफी संख्या है और यही कारण है कि ज्यादातर संगठन या दल इन दिशाहीन  लोगों के कारण ही किसी परिवर्तन को साकार करने में असक्षम हो रहे हैं । ऐसे में मात्र पॉवर या सत्ता हासिल करना ही उनका लक्ष्य रह गया है । ज्यादातर दल या संगठन अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं । सत्ता पाने के लिए ही सारे वैचारिक प्रदर्शन हो रहे है । जनता के प्रति किसी की कोई प्रतिबद्धता दिख ही नहीं रही है ।  लगता है चारों तरफ सत्ता पाने की होड़ मची है । जबकि भगत सिंह और उनके साथी व्यापक सामाजिक परिवर्तन चाहते थे । उन्होंने किसी भी तरह के सामाजिक शोषण का विरोध किया था । उनके लिए सामाजिक समानता महत्वपूर्ण था । ऐसे में आज ज्यादातर  दल या संगठन जो  भगत सिंह के नाम को तो भुनाती है वह  क्या वास्तविकता में सत्ता में रहने पर उन कार्यों के लिए कुछ कर पाती  हैं  या नहीं, यह भी हमें देखना होगा ।

क्या सही रूप से इन शहीदों को उनका स्थान मिल पाएगा या फिर वे इसी तरह नेताओं के भाषण और जुमलेबाजी का हिस्सा 

 

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